एक जमाईजी थे। वह संकोची स्वभाव के थे। एक बार वह अपनी ससुराल गए। वहाँ पर वह बात-बात पर झेंपने लगे। झेंपू तो पहले ही से थे, ससुराल होने के कारण 'करेला और नीम
चढ़ा' वाली हालत हो गई।
भोजन करने बैठे तो इच्छा होते हुए भी हर चीज के लिए इनकार करने लगे। उनकी साली राब परोसने आई तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार इनकार कर दिया।
संयोग से राब की एक बूँद उनकी पत्तल पर गिर गई। उन्होंने उसे चाटा तो बड़ी अच्छी लगी। उनकी इच्छा हुई कि कोई उन्हें राब परोस दे, पर झेंपू स्वभाव के कारण माँगें
तो कैसे? उनकी इच्छा मन में ही रह गई।
मगर राब की उस बूँद ने उन्हें तड़पा दिया। उसका स्वाद हर घड़ी जीभ पर अनुभव होने लगा। वह राब पाने की जुगत सोचने लगे। रात को जब सब जने सो गए तो उन्होंने अपनी
पत्नी पूछा कि राब की मटकी कहाँ रखी है। पत्नी ने पास के कमरे में छींके पर टँगी मटकी की ओर इशारा कर दिया। जमाईजी की बाँछें खिल गईं। वह दबे पाँव छींके के पास
पहुँचे।
मगर ठिंगने कद के होने के कारण छींके पर उनका हाथ नहीं पहुँचा। अचानक उनकी निगाह कोने में रखी लकड़ी पर पड़ गई। उन्होंने लकड़ी से मटकी के पेंदे में छेद कर दिया।
उस छेद में से राब चूने लगी। उन्होंने अपना मुँह फाड़ दिया।
इस तरह उन्होंने भरपेट राब खाई, लेकिन मटकी में से राब का टपकना फिर भी जारी रहा। वह बड़े घबराए। राब के नशे में उन्होंने मटकी में छेद तो कर दिया था, मगर अब
क्या हो? छेद बंद करने का उन्हें कोई रास्ता ही नहीं सूझता था। अगर राब को फर्श पर गिरने दिया जाए तो सवेरे घर में नाहक होहल्ला मचेगा। लाचार जमाईजी मटकी के
नीचे खड़े रहे और राब उनके शरीर पर टपकती रही। सारी मटकी खाली हो गई तब कहीं वह हटे।
अब जमाईजी के सामने समस्या आई कि देह और कपड़ों को कैसे साफ करें। इतनी रात को स्नान करने से भंडाफोड़ होने का डर था। इसलिए उन्होंने पास के कमरे में रखी कपास से
ही बदन को पोंछना शुरू किया, लेकिन राब चिपकनी होने के कारण कपास उनके बदन से लिपट गई। ज्यों-ज्यों वह राब छुड़ाने की कोशिश करते, कपास उनके शरीर से और चिपकती।
होते-होते उनका सारा शरीर कपास से ढक गया। वह बड़े अजीब से प्राणी बन गए। उन्हें इस हालत में देखकर शायद ही कोई पहचानता। अब तो वह और भी घबराए। करें तो क्या
करें? राब ने बड़ी उलझन में डाल दिया। घर के लोगों के जग जाने का डर अलग सता रहा था। अगर उन्हें ऐसा भूत बना किसी ने देख लिया तो क्या कहेगा!
बेचारे को जब कुछ नहीं सूझा तो वह कपास के ढेर से अलग हो गए और दबे पाँव बचते हुए ढोरों के कोठे की ओर बढ़े। सदर दरवाजे से तो बाहर निकलना मुमकिन नहीं था, इसलिए
वह इस रास्ते पर आए। मगर दुर्भाग्य ने यहाँ भी उनका पीछा न छोड़ा। ढोरों के कोठे में पैर रखा ही था कि किसी के बोलने की आवाज उनके कानों में पड़ी। उनकी जान सूख
गई। डर लगा कि शायद घर के लोग जाग गए। वह साँस रोककर मन-ही-मन भगवान को याद करने लगे। मगर भगवान भी शायद आज उनसे रूठ गया था। बातों की फुसफुसाहट और पैरों की आहट
पास ही आती जा रही थी। और कोई चारा न देख वह दुबककर भेड़-बकरियों के झुंड में छुपकर बैठ गए। सारा शरीर सफेद होने के कारण वह उन्हीं में से एक लगने लगे।
ढोरों के कोठे में जिनकी बातों की और पैरों की आवाज सुनाई दी थी, वे चोर थे। उन्होंने देवी की मानता मानी थी कि अगर आज चोरी में गहरा हाथ लगा तो वे एक भेड़ की
बलि देंगे। संयोग से देवी ने उनकी मनोकामना पूरी कर दी। खूब हाथ लगा। इसलिए वे एक भेड़ की तलाश करने लगे। अकस्मात उनकी निगाह भेड़ों के बीच दुबके जमाईजी पर पड़ी और
वह उन्हें अपनी पसंद की भेड़ समझ बैठे। सारे कोठे में वही उनकी आँखों में चढ़ गए। उन्होंने फौरन उस मोटी-ताजी भेड़ को बोरे में भर लिया और कंधों पर लादकर ले चले।
जमाईजी की जान सूखी जा रही थी। कुछ कहते तो प्राण जाने का डर था। इसलिए बेचारे पानी में बहते तिनके की तरह लाचार रहे। मन-ही-मन राब को कोस रहे थे - इस सत्यानासी
ने मुझे कितनी कठिनाई में डाल दिया।
चोर चलते-चलते देवी के मंदिर में पहुँचे। यहाँ वे बोझ को कंधे से उतारने लगे तो जमाईजी से नहीं रहा गया। वह बोल पड़े, 'भैया, जरा धीरे-से बोरी उतारना।'
चोर बोरी में से इस आवाज को सुनकर बड़े चकराए। उन्होंने सोचा कि यह क्या बला सिर पड़ी। घबराहट में बिना कुछ सोचे-समझे वे सिर पर पैर रखकर भाग खड़े हुए। जाते समय वे
अपना चोरी का धन भी ले जाना भूल गए।
जमाईजी देवी को याद करते हुए बोरी में से निकले। देवी ने उनकी जान बचाई, इसलिए उन्होंने उनका आभार माना। फिर उन्होंने पास ही बहती नदी में स्नान किया। राब और
कपास को बदन से छुड़ाकर चोरों का सारा माल-मता लेकर सवेरा होने के पहले ही ससुराल पहुँच गए और सारा माल उन्होंने अपनी पत्नी के हाथ में रख दिया। पत्नी इतना सारा
धन देखकर अचरज में रह गई। जमाईजी ने हँसते हुए कहा, 'यह सब तेरी राब की करामत है।'